बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन
प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
साहित्य में मार्क्सवाद की स्वीकृति इसलिए सम्भव हुई क्योंकि यह वाद अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विषमताओं से टकरा रहा था। यह विचारधारा इतनी प्रखर थी कि अपने उत्स भूमि तक ही सीमित न रहकर पूरी दुनिया की राजनीति को प्रभावित किया। मार्क्सवाद ने जो दर्शन दिया उससे दुनिया के अनेक देशों ने जो राजनीतिक, आर्थिक विडम्बनाओं से जूझ रहे थे पूरी श्रद्धा से स्वीकार किया तथा इसके आलोक में उन्होंने अपना मार्ग प्रशस्त किया।
इस विचारधारा ने साहित्य को भी पूरी तरह प्रभावित किया। मार्क्सवादी चिन्तन को प्रगतिशील चिन्तन भी माना जाता है। इसके सूत्र बेलिस्की, हर्जन, चर्नीशेबसकी दोबोल्युबीव आदि चिन्तकों में भी मिल जाते हैं, पर प्रमुख रूप से कार्लमार्क्स (सन् 1818-1883) और फ्रेडरिख ऐंजिल्स ही उसके व्याख्याता माने जाते हैं। मार्क्स ने पर्याप्त साहित्य लिखकर विश्व की चिन्तनधारा को प्रभावित किया। साहित्य सम्बन्धी उनके विचार उनके ग्रन्थों में ही झलकते दिखते हैं। उनके बाद इस परम्परा के सूत्र लेनिन, मैक्सिम गोर्की, प्लेखानोव, लूनाचक, क्रिस्टोफर, कॉडवेल (1907-1937), जार्ज लूकाच (1885-1971), राल्फ फॉक्स (1900-1937) आदि में भी पाये जाते हैं।
मार्क्स द्वारा लिखित साहित्य सामाजिक, आर्थिक विषमताओं को प्रकाश में लाता है। उनके चिन्तन विशेषकर 'द्वद्वात्मक भौतिकवाद' ने साहित्य के आनन्दवादी मूल्यों को अमान्य करके उपयोगितावादी मूल्यों की प्रस्थापना की। मार्क्स ने प्रायः अनेक विषयों पर ऐंजिल्स के साथ मिलकर लिखा है। उनके साहित्य और कला सम्बन्धी विचार 'लिटरेचर एंड आर्ट' नामक ग्रन्थ में प्रकट हुए हैं, जो उनके ए कन्ट्रव्यूशन टू दि क्रिटिक आफ पोलिटिकल इकोनामी नामक ग्रन्थ की प्रस्थावना का अंश है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्स एक प्रमुख सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को समझने के लिए थोड़ा सा सहारा दर्शन का लेना पड़ेगा। दार्शनिक चिन्तन की दो परम्पराएँ शुरूआत से ही मिलती है। एक परम्परा आत्मावादी है तथा दूसरी परम्परा भौतिकवादी है। आध्यात्मवादी ईश्वर में विश्वास करके उसे ही नियामक और नियन्ता मानते हैं। पर भौतिकवादी किसी चेतना सत्ता की स्थिति को स्वीकार नहीं करते। मार्क्स शुद्ध भौतिकवादी हैं, वे इस सृष्टि का मूल तत्त्व भूत अथवा पदार्थ (Matter) अथवा जड़ प्रकृति को ही मानते हैं। उनकी धारणा है कि भूत द्रव्यों के संयोग से पदार्थ की उत्पत्ति होती है। साथ ही अस्तित्व में आने के बाद भी पदार्थ के भीतर ही भीतर उसके निर्माता भूत द्रव्यों की क्रिया प्रतिक्रिया चलती रहती है। जो उनकी गति निर्धारित करती है। यह गति ही परिवर्तन और विकास का आधार है। अतः प्रशिक्षण गतिशीलता, परिवर्तनशीलता, विकासशीलता तथा तत्वों के बीच अन्तः क्रिया ही द्वंद्वात्मक भौतिक विकास का लक्षण है। लेनिन ने स्पष्ट कहा है कि Development is the struggle of opposits.
मार्क्स की विचारधारा को पढ़कर मन में एक सवाल उठता है कि प्रकृति तो जड़ एवं चेतनाहीन है फिर उसमें गतिशीलता एवं परिवर्तन कैसे सम्भव है। इसका समाधान भी मार्क्स के एक कथन से हो जाता है। मार्क्स कहते हैं कि ईंट व पत्थर आदि चाहे जड़ हैं, पर उनकी अणुओं के संयोग से ही होती है, जिनका निर्माण न्यूट्रॉन एवं इलेक्ट्रॉन से होता है, जिन्हें विज्ञान नित्य गतिशील मानता है। इस प्रकार जड़भूत की गत्यात्मकता अनवरत एवं निरापाद है। अतः जड़ प्रकृति (जोकि स्वयं गतिमान है) को संचालित करने के लिए किसी बाह्य शक्ति (ईश्वरादि) की आवश्यकता नहीं है। वह स्वचालित है, स्वयं परिवर्तनगामी है, स्वयं विकासोन्मुख है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मार्क्स का मूल आग्रह यह है कि प्रकृति गतिशील एवं परिवर्तनशील है। मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सारांश यही है कि समाज का विकास द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से ही सम्भव है। जब दो परस्पर विरोधी तत्व आपस में टकराते हैं, क्रिया प्रतिक्रिया करके आगे निकलने की होड़ करते हैं तब समाज का विकास सम्भव होता है। यानी किसी भी चीज में विकास के लिए उसके अन्दर द्वन्द्व की स्थिति अनिवार्य है।
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